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कहानी

कहानी : बलिदान का मूल्य

दोस्तों हमारे इस आर्टिकल “कहानी” में आप पढेंगे चार नई कहानियां जो आपको ज़िन्दगी में कुछ अलग करने के लिए प्रेरित करेंगी|


एक बार एक विमान में एक बहुत ही खुबसूरत महिला ने प्रवेश किया| विमान में चढ़कर जब महिला अपनी सीट के पास गई तो उसे अपने बाजु वाली सीट पर एक अपंग व्यक्ति नज़र आया जिसके दोनों हाथ कटे हुए थे|

महिला को उस अपन व्यक्ति को देखकर काफी घिन्न हुई| उसने आवाज़ देकर एयर होस्टेस को बुलाया और अपनी सीट बदलने के लिए आग्रह करने लगी|

एयर होस्टेस ने महिला से सीट बदलने का कारण पुचा तो महिला बोली, “में ऐसे व्यक्ति के पास बैठकर सफ़र नहीं कर सकती जिसके दोनों हाथ नहीं हूँ| में इस व्यक्ति के प्रति सहज नहीं हूँ| में इस व्यक्ति के पास बैठकर यात्रा नहीं कर सकती इसलिए प्लीज़ आप मुझे कोई और सीट दे दीजिए|

दिखने में शांत और पढ़ी-लिखी महिला के इस तरह के व्यहवार पर एयर होस्टेस अचंभित हुई| एयर होस्टेस ने चारो तरफ देखा लेकिन कोई भी सीट खली नहीं थी| एयर होस्टेस ने महिला को कोई भी सीट खली न होने को कहा और साथ में यह भी आश्वासन दिया की यात्रियों की सुविधा उनका पहला कार्य है इसलिए वह कैप्टन से बात करके कुछ न कुछ हल जरुर निकलेगी| इतना कहकर एयर होस्टेस कैप्टन के पास चली गई|

कुछ देर बाद एयर होस्टेस वापस आई और महिला से बोली, “मैडम, आपको हुई असुविधा के लिए में आपसे माफ़ी चाहती हूँ| लेकिन फ़िलहाल इस पुरे विमान में एक ही सीट खली है जो की बिज़नस क्लास की है| जैसा की मेने आपको बताया की हमारी कंपनी का प्रथम उद्देश्य यात्रियों की सुविधा का ख्याल रखना है| इसीलिए हम हमारी कम्पनी के इतिहास में पहली बार किसी इकोनोमी क्लास के यात्री को बिज़नस क्लास में बिठाने जा रहें हैं|”

एयर होस्टेस की बात सुनकर महिला बहुत खुश हुई और धन्यवाद कहते हुए अपनी सीट से उठने लगी| तभी एयर होस्टेस ने उस अपंग व्यक्ति की और अपने दोनों हाथ बढ़ाते हुए कहा, “सर! आपको हो रही असुविधा के लिए में आपसे माफ़ी चाहती हूँ लेकिन हम आपको इकोनोमी क्लास से बिज़नस क्लास की सीट दे रहें हैं क्यों की हम नहीं चाहते की आप किसी अशिष्ट यति के साथ यात्रा करें|”

एयर होस्टेस की यह बात सुनकर सभी यात्री एयर होस्टेस के इस निर्णय के लिए तालियाँ बजाने लगे और वह सुन्दर महिला अपने इस तरह के बर्ताव पर अब नज़रें नहीं उठा पा रही थी|

तभी वह व्यक्ति अपनी सीट से उठा और बोला, “में एक भुतपूर्व सैनिक हूँ| कश्मीर में हुए एक मिशन के दौरान मैंने अपने दोनों हाथ खो दीए| लेकिन मुझे हमेशा खुद पर देश के लिए दिए इस बलिदान पर गर्व होता था| आज जब महिला यात्री की यह बात मेनें सुनी तो मेने सोचा की मेने भी किन लोगो के लिए अपनी जान जोखिम में डाली और अपने हाथ खो दीए|

लेकिन जब आप सभी के व्यहवार और सोच को देखा तो मुझे आप खुद पर गर्व महसूस हुआ| इतना कहकर वह यात्री बिज़नस क्लास में चला गया| और वह महिला शर्म से पानी-पानी हो गई|

| कहानी “बलिदान का मूल्य” |


कहानी : बसंत 

प्रकृति हमेशा अपने नियम से चलती है| इस बार भी ठीक समय पर बसंत आ गया था| पतझड़ के मौसम के बाद हर बार बसंत को बसंत का इतजार रहता था| लेकिन इस बार पसंत की ज़िन्दगी का पतझड़ ख़तम ही नहीं  हो रहा था|

सुबह-सुबह ही सास के ताने सुनने के बाद बसंत के दिन की शुरूआत होती थी| आस पास की बगिया में फुल खिल चुके थे पूरी बगिया आज फूलों से महक रही थी| लेकिन बसंत के ज़िन्दगी की महक तो न जाने कहाँ गुम थी| बसंत का मन आज भी बेरंग और उदास था|

बस बहुत हो गया….. क्या मेरी ज़िन्दगी में सिर्फ ताने ही लिखे हैं? क्या मेरी ज़िन्दगी का कोई मोल नहीं ? बस इन्हीं सवालों को सोचती हुई वह उस दोराहे तक आ गई थी, जहाँ एक रास्ता उसके मायके की और जा रहा था और एक रास्ता उसके ससुराल की और…

लेकिन दोनों रास्तों पर उसे उसकी मंजिल नहीं नज़र आ रही थी|

कहाँ जाना है बहनजी ? (ऑटो वाले ने पुछा)

कहीं नहीं! कहते हुए मन ही मन बुदबुदाए जा रही थी| माँ ने पराया धन समझकर दूसरों को सोंप दिया और साँस ने पराई जाई कहकर प्यार और अपनापन नहीं दिया|

“बहनजी! ये फुल लीजिए, घर के फूलदान में लगाईएगा….घर महक उठेगा|” ”

मुझे नहीं खरीदना” कहकर फिर मन ही मन बुदबुदाए जा रही थी|

घर ? कैसा घर… मायके में भाई ने कहा अब यह तेरा घर नहीं है, ससुराल में पति ने कहा यह मेरा घर है|

मेरे पास तो कोई हुनर भी नहीं है| जब भी कुछ सीखना या करना चाहा तो माँ का जवाब होता अपने घर (ससुराल) में करना और साँसु माँ का ताना होता मायके में क्या सिखा ?

लम्बी सास लेते हुए बसंत के बुदबुदाने का काम जारी था| इतना सब सोच-सोच के बसंत की आँखे भर आई थी| भरी आँखों से वह फिर सोचने लगी, “हम सात जन्मों तक साथ रहने के लिए व्रत करते हैं और वह एक जन्म भी नहीं निभा पाते”

बस, यही सोचते-सोचते वह वहीँ लगी एक बेंच पर बेठ गई| तभी सामने लगे एक फ्लेक्स पर उसकी नज़र पड़ी| दोनों पैर न होते हुए भी एवेरेस्ट पर चढाई करने वाली महिला गले में पड़े मैडल को चूमती हुई दिखाई दी|

उसने बड़े गौर से उस फ्लेक्स पर देखा, फिर अपने आप पर गौर किया| कुछ ही पल लगे उसे सम्हलने में…..एकाएक उठ कड़ी हुई| उसे  तो जैसे अमृत की बूंद मिल गई थी| ईमानदारी और आत्मविश्वास के साथ दोनों राहों को छोड़ निकल पड़ी अपनी राह खुद बनाने| आज उसके जीवन में असली बसंत का आगमन हो चूका था|

लेखक :- मधु जैन  | कहानी  “बसंत ” |

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हादसा 

“आज मोना देरी से सो कर उठी” आफिस से छुट्टी जो ले रखी थी| हल्की सी ठण्ड थी इसलिए आज मोना बालकनी की धुप में बैठी थी| बालकनी में बैठे-बैठे वह फिर आदि की यादों में खो गई| कैसे वह घंटो इसी बालकनी में आदि के कंधे पर सर रखे बाते करती रहती थी| और आदि उसे तो बस मेरे घुंघराले बाल मिल जाए… घंटो मेरे बालों में अपनी उंगलिया घुमाएँ मुझे यह अहसास दिलाता रहता की में हमेशा तुम्हारे साथ हूँ|

लेकिन होनी को कोन टाल सकता है| आज से लगभग साल भर पहले एक कार हादसे के दौरान आदि मोना को हमेशा के लिए छोड़ कर चला गया था| अभी मोना की उम्र ही क्या थी शादी के बाद मोना और आदि दो साल भर ही साथ रहे होंगे की यह हादसा हो गया|

घर वाले मोना पर रोज़ अपनी नई ज़िन्दगी  शुरू करने का दबाव बनाते, कहते “अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है… तुम अब भी एक नई ज़िन्दगी की शुरुआत कर सकती हो” लेकिन मोना किसी की न सुनती|

औरों के लिए तो आज “वेलेंटाईन डे” था, लेकिन मोना के लिए कुछ नहीं| वह हरदम आदि की यादों में ही खोई रहना चाहती थी|

हालाँकि, पिछले कुछ महीनों से उसके साथ उसके आफिस में कम करने वाला “राज” उसमें दिलचस्पी ले रहा था लैकिन मोना के कठोर रवैये के कारण आज तक मोना से कुछ कहने की हिम्मत नहीं जूटा पाया| लेकिन वह मोना की हर संभव मदद करता है| वह चाहे आइस का काम हो या फिर बाज़ार का कुछ काम, आज तक उसने मोना की हर पल सहायता की है|

और शायद इसीलिए मोना का स्वाभाव भी अब राज के लिए बदलने लगा था| अब मोना आफिस जाते हुए अपने पहनावे पर भी ध्यान देने लगी थी| जाते जाते अब वह एक बार आईने में खुद को ज़रूर देख लेती|

बस यही सोचते-सोचते वह बालकनी की धुप में बैठी थी| “ओफ्फो, में भी क्या सोचने लगी! चलो आज “वेलेंटाईन डे” है कहकर वह किचन में चली गई|

“आदि! मन तुम तन से मेरे साथ नहीं हो पर मन से तुम आज भी मेरे साथ हो| तुम्हारी यादे आज भी मुझे जिंदा रखे है| देखो, आज मेने तुम्हारी पसंद वाली पनीर की सब्जी और लच्छे परांठे बनाए है| आओ चलो हम भे वेलेंटाईन डे मानते हैं|

तभी डोर बैल बजने से वह दरवाजा खोलती है| देखा तो सामने राज खड़ा था| राज को इस समय घर पर देखकर उसे थोडा आश्चर्य तो हुआ लेकिन फिर मन ही मन सोचने लगी की कहीं न कहीं आज मन में राज के आने की आस तो थी|

अगले ही पल बिना कुछ कहे राज ने अचानक गुलाब का फुल देते हुए अपने प्यार का इज़हार कर ही दिया| मोना ने  मुड़कर आदि की तस्वीर की और देखा| मानों, आदि की तस्वीर ही इस पवित्र प्रेम को अपनी स्वीकृति दे रही हो….और मोना ने मुस्कुराते हुए फुल ले लिया!

लेखक :- पवन जैन  | कहानी “हादसा ” |

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शिवा

आसमान में काले-काले बादल छाये थे। हवाएँ जोर पकड़ती जा रही थी। वर्षा होंने लगी, तेज होती हवाएँ, आन्धी- तूफान का रुप धारण करती जा रही थी। बिजली यूँ  कड़क जाती मानो अभी अभी कान के पास से होकर गुजरी हो, खपरैल से पानी रिस रहा था।

रम्या वहीँ एक कटोरा रखते हुए पति रामबाबू से बोली – अपको लड़के को इतना नहीं डाटना चाहिए| देखो दो दिन हो गये अब तक नही लौटा| कही गुस्से मे कुछ गलत-सलत न कर लें। आँसू पोछते हुए रम्या सिसकने लगी।

एक तूफान बाहर था और एक तूफान एक राम बाबू के अंदर बवंडर मचा रहा था। क्या मै उसका दुश्मन हूँ ? उसको डांट दिया तो उसके भलें के लिये ही डाटा| खाली पढ़ने से  कुछ नहीं होता, गढ्ना भी पड्ता है।  दिन भर किताबों मे डुबे रहना दिमाग और पेट के लिये ठीक नही।

क्या पता था घर छोड़ के भाग जायेगा, रामबाबू अब पछता रहे थें। वे जब शिवा के उम्र के थे , तो उनके बापूजी भी उन्हें निठल्ला, कामचोर समझते थे। क्या मैने घर गृहस्थी न संभाल लिया। धीरे-धीरे वो भी सिख ही जाता। इसी बिच किसी अनहोनी की आशंका से बाबू एकदम सिहर जातें।

बूढ़ापा आत्मग्लानी से कट-मरे ऐसा जान पड़ता था, आज भी बार-बार दरवाजा से बाहर देखते-देखते  शाम हो गयी थी| बारिश अब भी रुक-रुक कर हो रही थी। कोई गाडी सड़क से निकलती तो बाबूजी बढ़ी बेचैनी से देखते फिर शिवा को न पाकर निराश हो जातें।

बेहोशी की सी  हालत होने लगी थी| चिंता उन्हे गलाए जा रही थी। तभी वे लाठी लेकर उठ खड़े हुए| रम्या ने पूछा कहाँ जा रहे है, बाबूजी ? तो बोले, कही नही…जरा चौक हो आते है। तुम चाय बना के पी लेना, मै तुरंत आता हूँ| इतना कहकर बाबूजी बाहर निकल गए|

“जवान बेटा दो दिन से गायब है,अब आपको चौक सूझ रहा है।” बडबडाते हुए रम्या अंदर बत्ती जलाने चली गयी| बाबू अब भला कहाँ जातें| धोती कसकर धीरे-धीरे काढागोला स्टेशन की ओर चले| थोडी दूर ही गए होंगे की फिसल कर गिर पड़ें| पुरा धोती-कुर्ता कीचड़ मे सन गया, उसके बाद उन्हे नही पता|

आँख खुली तो सामने शिवा, रम्या थे। धोंती-कुर्ता नया था। लगा जैसे सपना देख रहे हो, पास पड़ी लाठी उठाई दो चार लाठी हौले-हौले से शिवा पर बरसा दिये, फिर दुसरे ही पल शिवा से लिपट कर खुब रोने लगे| शिवा भी रोने लगा, “ए बाबू रोओ ना नही तो फिर चला जाऊंगा कहते हुए शिव ने बाबूजी को गले से लगा लिया”|

रामबाबू आंसू पोछते हुए लाठी लिये बोले, “जाने की बात मत करना, नही तो दो लाठी और पड़ेगें। रम्या के आँसू से उसका आँचल पूरा भींग चुका था। रम्या ने शिवा के कान पकड के पुछा दो दिन से कहाँ थे?

माँ! शहर मे नौकरी लगी है, स्कुल मे| बाबू जी गुस्से मे थे इसलिए कुछ नही कहा- “सोचा जब तक लौटू तब तक उनका गुस्सा शान्त हो जाएगा| माँ-बाप से शिवा को चेतावनी मिली ऐसा दुबारा ना हो, शिवा सब जान चुका था ।मा बाबा का प्रेम पवित्र था,है और रहेगा!

लेखक :- ओमप्रकाश चौहान | कहानी “शिवा” |


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